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कविता

टूट रहीं आस्थाएँ

ओमप्रकाश सिंह


अपना साथ
छोड़कर भागें
अपनी ही प्रतिमाएँ।

पंख खोलकर
रात उड़ गई
हाथ मल रहा दिन
सपनों के
गुब्बारे नभ में
काँप रहे अनगिन
गूँगी-बहरी
संस्कृतियों की
टूट रहीं आस्थाएँ।

चेहरे
अदल-बदलकर
आतीं अंतर्मन में बातें
हस्ताक्षरित
हो रहीं पल-पल
करवट लेतीं घातें
मन के
अंदर-बाहर उठतीं
मर्यादित पीड़ाएँ।

रिश्ते-नाते
जाल बिछाए
नोचें रेशे-रेशे
अब तो चेहरे भी
चेहरों को
दर्पण पर जा कोसें
नए सोच की
खिड़की खोले
बौराई इच्छाएँ।
 


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